लुटा क़ारूणि ख़ज़ाना à¤

poem by: Nadir Hasnain
Written on May 20, 2014

               (ग़ज़ल)	
कहीं चहकेगी बुल बुल और कहीं गुल मुस्कुराये गा
ढलेगी   रात  अँधेरी   सवेरा   लौट   आए       गा
          ख़ुदा जिसको जहाँ चाहे बिठाता  है  बलन्दी पर
          क़त्तारों  में  खड़ा हूँ  मैं  मेरा भी वक़्त आए गा
ऐ तूफाँ तुझ से कहता हूँ अदब से पेश आया कर
जवानी कुछ दिनों कि है शमा कब तक बुझाये गा
                    हमें बांटा है फ़िरक़ों में बड़ी गन्दी सियासत है
                    सितमगर की है मजबूरी सितम फिरसे वोह ढाये गा
किसी भी क़ौम का दुश्मन मसीहा हो नहीं सकता
हो मिल्लत की निगाहें तो नज़र तुझको भी आएगा
                  लुटा क़ारूणि ख़ज़ाना मिटि फ़िरौन की ताक़त
                  तेरी हस्ती भला क्या है बता क्या आज़मायेगा
हिक़ारत की नज़र से देखने वालो गुज़ारिश है
वोह गुज़रे दिन भी ताज़ा कर तुझे कुछ याद आएगा
                सज़ाए मौत से बढ़ कर सज़ा दुश्मन को देनी हो
                वोह जबभी सामने आए ख़ुशी के गीत गायेजा
सब्र से काम ले नादिर ये वक़ते आज़माइश है
तेरी क़िस्मत का तारा भी जहाँ में जगमगाए गा

: नादिर हसनैन (नादिर)

 

Tags:

 

More by Nadir Hasnain

...
घर à¤...

poem by Nadir Hasnain

(बेटी) घर की रौनक़ शान है बेटी ………ममता की प... Read more

...

poem by Nadir Hasnain

(ग़ज़ल) कहीं चहकेगी बुल बुल और कहीं गुल मुस्à... Read more